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जून 2014 के बाद की गज़लें/गीत (19) मन का आँगन (‘ठहरो मेरी बात सुनो’ से)

(सारे चित्र' 'गूगल-खोज' से साभार)  
   प्यार के फूलों से महकाओ, साथी अपने मन का आँगन !
कभी काम की कुटिल कामना, धधक रहे अंगार उगलती |
कभी क्रोध की गर्मी पाकर, धीरे-धीरे प्रीति सुलगती ||
कई तरह की आग यहाँ है, बुझ-बुझ कर है जलती रहती-
मन-मधुवन में किसी आग से, जल मत जाए महका चन्दन !
  प्यार के फूलों से महकाओ, साथी अपने मन का आँगन !!1!!


इस कड़वाहटके जंगल में, मीठे भाव बचा कर रखना !
व्यवहारों की तीती मिर्चें, का मत स्वाद भूलकर चखना !!
देखो तो आनन्द लुटाते, मृदु चिन्तन पर आँच न आये-
किसी विषम तूफ़ान की ज़द में, ढीले मत हों स्नेह के बन्धन !
प्यार के फूलों से महकाओ, साथी अपने मन का आँगन !!2!!
चमक-दमक के झूठे भ्रम में, काँच को कंचन समझ न लेना !
झूठे जज्वातों की रौ में, कभी किसी को दिल मत देना !!
कभी हास में भी छल होता, मुस्कानों भी झूठी होतीं-
हर छलना से बच कर रहना, लुटा न देना कहीं प्रेम-धन !
प्यार के फूलों से महकाओ, साथी अपने मन का आँगन !!3!!
प्यार करो तो हर हालत में, प्यार की अपने आन निभाना ! 
इसकी हैं कुछ मर्यादायें, इसको कभी न तुम विसराना !!
सावधान हर हवा से रखना, मधुवन अपने आचरणों का-
विकार का दावानल भड़के, दहक न जाये रूप कानन !
प्यार के फूलों से महकाओ, साथी अपने मन का आँगन !!4!!











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