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पुरानी रचनाएँ (1985 की कुछ रचनायें) (1) गर्मी (ख) अंतर् में अन्धेरा है !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
अब तो अन्धेरा भी सृष्टि के विस्तार के साथ बढ़ रहा है |
सागर के ज्वार सा चढ़ रहा है ||
सृष्टि में समाने में अक्षम-
घुस र५हा है प्राणियों के मन में |
बन कर के
परनिन्दा, परछिद्रान्वेषण |
मिटा कर प्यार की गर्मी |
बन कर आवारा बेशर्मी ||
गर्मी ने भी ओधा है ठंडा कपट का लवादा |
फरेब का जाल !
बन गया जंजाल !!
सरेआम छा रही है अहंकार की गरमाहट !
हर चहरे पर लिख गयी है गुर्राहट !!
दया की चाँदनी मिट रही है !
शान्ति की शीतलता घाट रही है !!
क्रोरता की दोपहरी तप रही है !
सेवा की कलियाँ मुर्जाई हैं !
स्वार्थ की झाड़ियाँ सरे आम छाई हैं !!
मिट गया है परोपकार का रसाल-बौर !
चारों और है धक्कामुक्की का और शोर !!
खूँरेजी का अजब दौर !!
एक को धकेल कर दूसरा बढ़ रहा है !
एक को गिरा कर दूसरा चढ़ रहा है !!
खुद्दारी अब बन गयी है खुदी की गर्मी !
कुछ ज्ञान की गर्मी !!
कुछ माँ की गर्मी !!
कुछ दूसरों से छीनी हुई शान की गर्मी !!
सुलग रही’ चारों ओर एक शीतल ज्वाला है !
और उसके धुएँ से पर्यावरण काला है !!
 


 

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