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घनाक्षरी वाटिका |पंचम कुञ्ज (गीता-गुण-गान)चतुर्थ पादप(व्यष्टि-समष्टि)

हर चीज़ पुरानी हो सकती है परन्तु ज्ञान पुराना होता ही नहीं, मान्यतायें पुरानी होंती हैं, परम्पराएं भी | रीतियाँ बदलती हैं परंतु ज्ञान-विवेक तो चिर शाश्वत होता है उसका विकास तो होता है पर वह न तो मरता है और न ही पुराना होता है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
      
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‘समष्टि-ब्रह्म’, ‘व्यष्टि-ब्रह्म’,यानी ‘व्यक्ति’ औ ‘समाज’,
दोनों ‘ब्रह्म-शक्तियों’ का इस में बखान है |
‘सामाजिक इकाई’ व्यक्ति, उस का अभिन्न अंग,
व्यक्ति ही समाज की अनूठी पहँचान है ||         
पूरक हैं एक दूसरे के दोनों निश्चय ही तो,
‘एक’ बिना ‘दूसरा’ तो मानो निष्प्राण है ||१||

 
भेद-भाव की नहीं है, कहीं कोई बात अपितु,
गीता में अनोखा एक ‘समता का गान’ है |
‘निर्भय’, ’निर्वैर’, ’निष्पक्ष’ हों सभी तो,
‘सामाजिक रोग-विघटन’ का निदान है ||
निज निज कर्म में हों लगे हुये सभी किन्तु,
हर कोई जीव होता एक ही सामान है ||
गीता में यही बताया, इसे आत्मसात करें,
यह ‘समाज’- हेतु तो ‘प्रसाद’-‘वरदान’ है ||२||

‘सत्-राज-तम’ के समन्वय से बनी ‘सृष्टि’,
तीनों के ही योग से ये ‘विश्व के विधान’ हैं |
गुणों में ये तीनो भिन्न, ’सृजन’ के हेतु सदा,
‘उपयोगिता’ में किन्तु तीनों ही सामान हैं ||
जन्म, पोषण, ज़रा, मृत्यु, चारों के ही संचालन,
में इन सभी का सामान योगदान है ||
‘ज्ञानी’ उन्हें कैसे कहें, कैसे विद्यावान’ कहें,
इसी ‘परम तथ्य’ से जो लोग अनजान हैं ||

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  मेरे ब्लॉग 'साहित्य-प्रसून' पर   नयी करवट (दोहा-ग़ज़लों पर एक काव्य ) में आप का स्वागत है !


  

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