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मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (ग)मीनार(३) प्रगति-खरपतवार



अनचाहे कुछ ‘खरपतवार’ 


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‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !

जैसे किसी ‘फसल’ में पनपें, अनचाहे कुछ ‘खरपतवार’  ||

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ऊँचे ‘महल-हवेली’ हमने पाये,मिला हमें ‘आनन्द’ |


हमने सोचा,‘दुःख-दर्दों’ के लिये हुये हैं ‘रस्ते’ बन्द ||

‘हर्ष-नदी’ में, ‘मनमानी’ के ‘गन्दे नाले’ हैं स्वच्छन्द |

इनके ‘घोर प्रदूषण’ से हैं, हमने पाये ‘दर्द अपार’ ||

‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!१!!






‘चमक-दमक’ की ‘कलई’ चढ़ गयी, दबे हैं देखो सभी यथार्थ!

भीतर भीतर लोग ‘शकुनि’ हैं, ऊपर ऊपर दिखते ‘पार्थ’ ||

‘परमार्थ की प्रदर्शनी’ है, पनपे ‘उपकारों’ में ‘स्वार्थ’ ||     

‘दान’ बिक रहे ‘तराजुओं’ पर, खुले हैं ‘सेवा के बाज़ार’ ||              

‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!२!!




‘क्रान्ति-शान्ति’ के प्रयास से यह अपना देश हुआ आज़ाद |

‘आज़ादी की बेलि’ के साथ में,उपजे ‘दंगे और फ़साद’ ||

‘समानता की हर क्यारी’ में,‘जातिवाद के उगे ‘विवाद’ ||

‘स्वराज’ लाने के वे ‘मीठे सपने’ नहीं हुये साकार ||  

‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!३!!




‘सत्य-अहिंसा’ में उग आयी, ‘खूनी घटपर्णी की बेलि’ |

‘मर्यादा’ में, ‘नग्न-वाद’ की उगी है ‘घृणित वासना-बेलि’ ||

‘जाति-धर्म के संगठनों’  की ‘हिंसा वाली ठेलमठेल’ ||

‘मानवता की नौका’ की है, देखो, टूट गयी ‘पतवार’  ||

‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!४!!


‘भारतीयता की फसलों’ में,डाली गयी ‘विदेशी खाद’ |

‘लूट,जमाखोरी,कर-चोरी’ के उग आये ‘कई विषाद’ |

‘घूस’,’दहेज’ के ‘कंटालों’ के काँटों के चुभते ‘अवसाद’ ||

‘देश-द्रोह, अलगाव-वाद औ उग्रवाद’ के उगे ,’विकार’ ||

‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!५!!






और कहाँ तक तुम्हें गिनाऊं, कितने उगे ‘झाड़-झंकाड़’ !

‘शान्ति-प्रीति-प्रसून’ के ‘पौधों’ का इनसे हो चुका उजाड़ ||

किसे बुलायें, जो इन ‘दुखदाई झाड़ों’ को सके  उखाड़ ||

चलो, ’मसीहा’ कोई ढूँढ़ें, या ढूँढ़ें ‘कोई अवतार’ ||

‘प्रगति’ के साथ में पनप रहे हैं, देखो कितने ‘भ्रष्टाचार’ !!६!!


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देवदत्त प्रसून  – (17 October 2012 at 04:30)  

'चित्र-पोस्टिंग'सीख कर उसके अभ्यास हेतु कुछ अधिक चित्र पोस्ट कर रहा हूँ | क्रमश: इन्हें कम करूँगा !
इन चित्रों में क्या रखा है,ये तो चित्र पराये हैं |
मन पर वही चित्र छपते हैं,जो निज मन को भाये हैं ||

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